नागा साधु
नागा साधु हिंदू तपस्वियों का एक विशेष संप्रदाय है जो शैव संप्रदाय से संबंध रखते हैं। वे अपनी अनूठी और विशिष्ट जीवन शैली के लिए जाने जाते हैं, जिसमें सांसारिक बंधनों को त्यागना, ब्रह्मचर्य का पालन करना और अलगाव में रहना शामिल है। वे अक्सर भारत के पवित्र शहर वाराणसी से जुड़े होते हैं और प्रमुख हिंदू त्योहारों और धार्मिक समारोहों के दौरान देखे जा सकते हैं।नागा साधुओं की विशेषता उनके नग्न या राख से सने शरीर, उलझे हुए बाल और कम से कम या बिना कपड़े पहने होते हैं। वे अक्सर त्रिशूल, भाले और अन्य पारंपरिक हथियार ले जाते हैं और अपने भयानक रूप के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी तीव्र शारीरिक उपस्थिति के बावजूद, उन्हें भगवान शिव के प्रति समर्पित माना जाता है और वे आध्यात्मिक मुक्ति के मार्ग का अनुसरण करते हैं।नागा साधु हिंदू धर्म के भीतर अत्यधिक पूजनीय हैं और उन्हें आस्था का रक्षक माना जाता है। वे अपनी गहन ध्यान प्रथाओं, तपस्या और तपस्या के लिए जाने जाते हैं। कई नागा साधु आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में, सांसारिक मामलों से अलग होकर जंगलों और पहाड़ों में भटकते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं।
साधु कैसे बनते हैं?
नागा साधु केवल तीन मुहूर्तों पर ही दीक्षा लेते हैं अर्द्ध कुंभ महाकुंभ और सिंघस्थ नागा। साधु बनने की सबसे अनिवार्य शर्त है ब्रह्मचर्य की दीक्षा और परिवार त्याग। फिर 3 साल तक गुरुओं से शिक्षा शारीरिक प्रशिक्षण होता है। इसका भी एग्जाम होता है जो साधु पास होता है, महापुरुष की उपाधि ग्रहण करता है, महापुरुष बनने के लिए धार्मिक कर्मकांड भी होते है जैसे कुंभ के दौरान सिर मुंडवाकर नदी में 108 डुबकी या लगवाना। महापुरुष के बाद अगली उपाधि अब दूध की होती है जिसमें साधु स्वयं का पिण्डदान करता है और आगे का जीवन धर्म को समर्पित कर देता है। इस प्रकार साधु मृत्यु से भय ही न हो जाता है। साधु के अनुशासन पालन में जो क्रियाये पालन करनी होती है वे हैं मानव बस्तियों से दूर रहना। 1 दिन में केवल सात घर में ही भिक्षा लेने जाना सा तो घरों से कुछ ना मिले तो अगले दिन तक भूखा रहना। केवल कुछ आसन को धरती पर ही बिछाकर बैठना या लेटना, लंगोट के अलावा कोई भी वस्त्र धारण ना करना, जंगल व गुफाओं जैसी निर्जन स्थानों पर रहना या फिर अखाड़े में रहना अवधूत के बाद दिगंबर और श्रीदिगंबर की उपाधि होती है। श्री दिगंबर के लिंग की इंद्री ये कर्मकांड द्वारा तोड़ देनी होती है। शिव जी का पालन करते हुए ये नागा साधु अपने शरीर पर हवन की राख या चिता की भस्म रगड़ते हैं। और शस्त्र के रूप में त्रिशूल, तलवार, दंड अन्य हथियार धारण करते हैं। अपने प्रशिक्षण के कारण यह नागा साधु खाली हाथ जंगली जानवरों से निपटने व उन्हें काबू करने में पारंगत होते हैं। इसलिए बहुत से साधु जहरीले नागों को पालतू बनाकर अपने कंठ में धारण कर लेते हैं।
अब आते हैं अपनी कहानी की कथावस्तु पर। 1757 में अब्दाली की सेना के विध्वंस से गोकुल को नागा साधुओं ने कैसे बचाया? अहमद शाह अब्दाली ने 1756 में भारत पर अपना चौथा आक्रमण किया और दिल्ली तक पहुँच कर पूरी दिल्ली को लूटा। खुद दिल्ली पर काबिज होकर अब्दाली ने अपनी सेना को लूट मार के लिए बल्लभगढ़ जो उस समय की रियासत थी। मथुरा, आग्रा, वृन्दावन, महावन रवाना कर दिया। अहमद शाह अब्दाली का अपनी सेना को सीधा आदेश था की रास्ते में जो भी व्यक्ति या इमारत खड़ी दिखे उसे धराशायी कर दो। आग्रा तक रास्ते में पड़ने वाले हर शहर कस्बे को तलवार की धार पर रख दो। कस्बे से लेकर जिले तक ऐसी लूट मचाओ की कुछ बाकी ना रहे। अहमद शाह अब्दाली का ये हुक्म लेकर उसके दो कमांडर जहान खान और नजीब खान 20,000 सैनिकों के साथ लूट पर निकल पड़े। अहमद शाह की ललकार आनन फानन में उत्तर भारत में फैल गई। ये ललकार देश में अलग अलग स्थानों पर स्थित नागा साधुओं के अखाड़ों तक भी पहुंची। देशभर से नागा साधु मथुरा की तरफ कूच करने लगे और उनका बेस कैंप था। मथुरा से आठ नौ किलोमीटर दूर यमुना पार भगवान श्रीकृष्ण का पालन गांव गोकुल। सभी नागा साधु गोकुल में इकट्ठा होने लगे। अंदाजा था कि जब तक अब्दाली की सेना मथुरा तक पहुंचेगी, गोकुल में 10,000 सशस्त्र युवा सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त नागा साधु एकत्र हो चूके होंगे। लेकिन अब्दाली की सेना को मात्र 150 किलोमीटर यानी 150 किलोमीटर दूर दिल्ली से मथुरा पहुंचना था। जबकि नागा अपने अपने अखाड़े जो हरिद्वार, उज्जैन, ऋषिकेश, इलाहाबाद आदि में स्थित थे से गोकुल पहुंचना था, जो दिल्ली के मुकाबले मथुरा से चार पांच गुना ज्यादा दूर थे। इससे पहले भी नागा साधुओं ने देश धर्म की रक्षा के लिए अपनी सैन्य सेवाएं दी थी, जो इतिहास में दर्ज है। खैर अब्दाली की सेना ये मार काट मच आती हुई। 15 मार्च 1757 को मथुरा पहुंची जहाँ उन्होंने वही किया जो उन्हें निर्देश था। मथुरा की पवित्र गलियां खून के बहाव से भर गई लाशों का ऐसा अंबार लगा की कई दिनों तक मथुरा की हवा बदबूदार हो गई, धन संपदा लूट ली गई। युवा स्त्रियों तरुणियों ने यमुना में कूदकर आत्महत्या कर ली ताकि वो अफगान सैनिकों द्वारा बलात्कार और अफगानिस्तान ले जाए।
यही हाल वृंदावन में हुआ। वृंदावन के बाद अब्दाली की सेना ने महावन की ओर अभियान मोड़ दिया। महावन में लूटपाट के बाद आग्रा की ओर अफगान सेना को बढ़ना था। उससे पहले अचानक अफगान सेना के कमांडर सरदार खान ने गोकुल में लूटपाट का विचार बना लिया। गोकुल महाबंद से मात्र चार या पांच किलोमीटर दूर है। मथुरा वृन्दावन महाबंद से जान बचाकर भागे जो शरणार्थी थे। वो गोकुल में शरण लिए हुए थे। सरदार खान ने महावन में सैन्य बल से 10,000 सैनिक लिए और यमुना किनारे गोकुल से तीन किलोमीटर दूर शिवगढ़ दिए। गोकुल मैं अभी तक केवल 4000 नागा आ चूके थे। सरदार खान और उसके 10,000 सैनिकों की कुदृष्टि गोकुल के मंदिरों की धन संपदा व नगर की युवा महिलाओं पर थी पर दोनों के बीच धर्म एवं शरणार्थियों की रक्षा के लिए अडिग शिव भक्त नागा खड़े थे। वही ना था जो ब्रह्मचर्य के तप और अखाड़ों के प्रशिक्षण से महाबलशाली भुजाओं में साक्षात मृत्यु लपेटें। धर्म को समर्पित होने की जिद पर बिखरे पड़े थे। अफगान सैनिक गोकुल पर टूट पड़े और नागा साधुओं के सामने पड़ गए। अपने सामने चिता की भाषण से समय हुए जटाधारी विकराल रूप वाले नागा साधु देख उनके कलेजे कांप गए। आंगन सैनिकों ने पहली बार रख रमित चेहरे देखे, जिनकी पहचान असंभव थी और जो हाथों में त्रिशूल, तलवार, भाले लिए मिट्टी की तरह लखनपाल से अफगान सैनिकों के झुंडों में घुस गए। जो लंबे अफगान सैनिक ये कहता था की वो मिट्टी से नहीं डरता, वो भी अपने प्राण बचा था, भाग रहा था ऐसे विकराल विभक्त योद्धाओं के सामने नागाओं का जयकारा हर हर महादेव गूंज रहा था और अफगान सिपाहियों की चीखें गूंज रही थी। हालांकि अफगान भी खूब लड़े लेकिन ना गांव का शारीरिक और मानसिक बल उन पर भारी पड़ा। हजारों अफगान सैनिक कुछ ही देर में काट डाले गए और नागांव द्वारा उसी गति से काटे जाते रहे। एक एक नागा 1010 अफगानों को काट रहा था। कुछ ऐसी हासिक दस्तावेज बताते हैं कि कुछ नाराज योद्धाओं में 100 से ज्यादा सैनिकों को मार डाला था। जब अफगान सैनिकों की संख्या तेजी से कम होने लगी तो उन्हें हर साक्षात् दिखाई देने लगी। ऐसा होते ही अफगान सैनिकों में भगदड़ मच गई। वे युद्ध छोड़कर भागने लगे। थोड़ी ही देर में धरती लाशों से ऐसे पट गयी की बाकी की लड़ाई लाशों के फर्श पर हुई। जांच होते होते युद्ध और युद्ध हो गया। अब लाशों के फर्श पर लाशों के टीले बनने लगी। खून से फिसलन होने से नागा साधु भी मारे गए, लेकिन वे रुके नहीं। अफगान सेना का कमांडर सरदार खान इतना सैन्य नुकसानदेह घबरा गया। उसने महाबंद से और सैनिक बुला लिए। लेकिन सीमा से भारत के दिल्ली तक अजय कहे जाने वाली क्रूर ताकतवर अफगान सेना आज धर्मोन्मादी नागा साधुओं के युद्ध कौशल के सामने असहाय होकर हार रही थी। आखिर विजय की कोई भी आशा जब नहीं बची तो कमांडर सरदार खान ने अपनी सेना को पीछे हटने के आदेश दे दिए। अफगान सैनिक किसी आधिकारिक आदेश के लिए उतारने हो भी रहे थे और वो पीठ दिखाकर अपने घायल साथियों को भी युद्ध स्थल में मरने के लिए छोड़कर युद्ध से भाग खड़े हुए। ये हार सरदार खान के लिए बेहद शर्मनाक। उसके 10,000 से ज्यादा सैनिक मात्र 4000 नागा साधुओं से हार गए थे। पीछे हटने के अलावा उनके पास कोई रास्ता बचा ही नहीं था क्योंकि नादाँ योद्धाओं के और झुंड जो रास्ते में थे गोकुल पहुंचने लगे थे। सरदार खान को अब चिंता होने लगी की आप दिल्ली को क्या जवाब देगा? लेकिन आप डाली को तो जवाब देना ही था कि हजारों सैनिकों की बलि के बदले में सरदार खान गोकुल से क्या धन संपदा लेकर आये? तो सरदार खान ने इतिहास में अपनी हार और हजारों अफगान सैनिकों की मृत्यु का कारण बताया कि अफगान सिपाहियों में हैजा फैलने सैनिकों की मृत्यु हो गई। उस समय हैजा महामारी हुआ करती थी। साथ ही सरदार खान ने अब्दाली के निरीक्षक जो बंगाल का एक वकील था जिसका नाम जुगल किशोर था को रिश्वत द्वारा अब्दाली को सही रिपोर्ट ना देने के लिए मना लिया। गोकुल निरीक्षण के बाद निरीक्षक जुगल किशोर ने आप को जाकर रिपोर्ट दी कि गोकुल नंगे भिखारी साधुओं का एक गांव है। वहाँ लूटने के लिए कुछ भी नहीं है। इसलिए अहमद शाह अब्दाली ने सरदार खान को वापस दिल्ली लौटने का आदेश दिया। सरदार खान की जान में जान आई वह दोबारा गोकुल में युद्ध नहीं करना चाहता था। भले ही अहमद शाह अब्दाली उसे अतिरिक्त सैन्य सहायता भेजें। 4000 में से 2000 नागा साधु यमुना के तट पर शहीद हुए, लेकिन उन्होंने अपने पीछे धर्म और धर्म में आस्था रखने वालों की रक्षा की। गोकुल के मंदिर महिलाएं, बच्चे और शरणार्थी शिवभक्त ना गांव द्वारा बचा लिए गए। धन्यवाद साथियों आप ने देखा कि कैसे हमारे भारत के नागा योद्धाओं ने अहमद शाह अब्दाली को उसके चौथे आक्रमण में विफल कर दिया। इस चौथे आक्रमण में जब वो दिल्ली से वापस जा रहा था तो मैं एक चीज़ यहाँ पे ऐड करना चाहूंगा। की उसे वापस जाते समय अमृतसर में सिख योद्धाओं का भी सामना करना पड़ा। सिख योद्धाओं ने भी अफगान सैनिकों की बुरी गत की और उन्हें बुरी तरह खदेड़कर भारत से बाहर भगाया।
0 Comments